
आप महलों में रहें मालिक हैं आख़िर मुल्क़ के, हम ग़रीबों के लिए फुटपाथ पर तिरपाल है
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-सत्येन्द्र गोविन्द
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साहित्य के रविवारीय अंक में इस बार हम लेकर आए हैं आदरणीय "नज़्मसुभाष" जी की ग़ज़लें। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - "चीखना बेकार है (ग़ज़ल संग्रह)", "संगतराश (कहानी संग्रह)", "मंटो कहाँ है (लघुकथा संग्रह)" तथा "फ़िरदौस ख़ानम (कहानी संग्रह,प्रकाशनाधीन)। आपकी रचनाएँ देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस, कथाक्रम, कथाबिम्ब, पाखी आदि में प्रकाशित होती रहती हैं।
आइए पढ़ते हैं नज़्मसुभाष जी की पाँच बेहतरीन ग़ज़लें-
ग़ज़ल-1
अपनी बेचैनी को ढोना पड़ता है
जो ना होना था वो होना पड़ता है
मेहनतकश की उजरत बस इतनी सी है
अक्सर भूखे - प्यासे सोना पड़ता है
ऐसे पल भी आते हैं इस जीवन में
हंसना - गाना रोना - धोना पड़ता है
किरची - किरची उम्मीदें बिखरीं सारी
धीरे - धीरे सबकुछ खोना पड़ता है
मुट्ठी भर दाने की खातिर दहक़ां को
ख़ून - पसीना खेत में बोना पड़ता है
जिस "छोटू" की खातिर थे कानून तमाम
उसको बरतन अब भी धोना पड़ता है
नज़्म सुनो!अब आंखों में आने दो नींद
कुछ पाने को ख़्वाब संजोना पड़ता है
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ग़ज़ल-2
पहले ख़ुद को तन्हा कर
फिर किस्तों में टूटा कर
वक़्त बुरा ये गुजरेगा
तू इतना मत सोचा कर
सुन पाने की क्षमता हो
प्रश्न तभी कुछ पूछा कर
मिलता भी है , जल्दी भी
फ़ुर्सत से तू आया कर
बच्चे खुश हो जाएंगे
उनके संग भी खेला कर
जिस्म ज़रूरी है , लेकिन
पहले दिल में उतरा कर
रोज़ मनाना मुश्किल है
थोड़ा कम - कम रूठा कर
आंखें चुंधिया जाती हैं
ख़्वाब न दिन में देखा कर
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ग़ज़ल-3
है बहुत बेशर्म आँखों में सुअर का बाल है
आदमी अच्छा नहीं पर वो बहुत खुशहाल है
मुफ़लिसों की ख़्वाहिशें आकाश छूने की नहीं
लाज़िमी उनके लिए थाली में रोटी- दाल है
आप महलों में रहें मालिक हैं आख़िर मुल्क़ के
हम ग़रीबों के लिए फुटपाथ पर तिरपाल है
दुम हिलाने का हुनर अब छूटता भी तो नहीं
जिस्म पर उसके भले ही भेड़िए की खाल है
छटपटाती है सियासत बस वही हो न्यूज़ में
हाथ में दंगे हैं उसके और फिर हड़ताल है
आप चाहें, जिस्म की मंडी यहीं लग जाएगी
आप ये बतलाइए ज़ेबों में कितना माल है
तोंदुओं के वास्ते हैं थाल छप्पनभोग के
योग की घुट्टी को पीता कोई नरकंकाल है
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ग़ज़ल-4
सैकड़ो का ग़ुमान बदलेगा
देखिएगा रुझान बदलेगा
वोट मांगे हैं प्यार से जिसने
जीतते ही ज़बान बदलेगा
जिसकी आदत उधार खाना है
लाजिमी है दुकान बदलेगा
छोर मिलता नहीं उमीदों का
अब परिंदा उड़ान बदलेगा
हम खुदी को बदल नहीं सकते
सोचते हैं जहान बदलेगा
कल ज़मीं को बदल रहा था तू
आज क्या आसमान बदलेगा
आज जो सच का भर रहा है दम
देखना कल बयान बदलेगा
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ग़ज़ल-5
भूख से हैं त्रस्त आँते, बिलबिलाता पेट है,
ज़िंदगी जैसे कोई जलती हुई सिगरेट है।
आदमी तन्हा यहाँ क्यों जबकि हरदम साथ-साथ,
ह्वाट्सएप है, फेसबुक है और इंटरनेट है।
हर ज़रूरत के लिये हर सिम्त है इक मार्केट,
किंतु खाली जेब है तारीख़ ट्वेंटी-एट है।
कब न जाने लौटकर आ जाये तू ये सोचकर
इस मकाने दिल पे चस्पा आज तक 'टू-लेट है'।
मैं यहाँ की भव्यता को देखकर हैरान हूं,
आदमी बौने घरों में किंतु ऊंचा गेट है।
वो ज़माना और था, ईमान जब बिकता न था,
ये ज़माना और है, अब हर किसी का रेट है।
'नज़्म' दिल जुड़ता भी कैसे,'अर्थ'आड़े आ गया,
क्या करे लड़की अगर थोड़ी- सी ओवरवेट है।
नज़्मसुभाष
356/केसी-208
कनकसिटी आलमनगर लखनऊ -226017
मोबाइल नंबर-63954894504
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