
बुलाती है मगर जाने का नहीं, नहीं रहे हमारे बीच राहत इंदौरी साहब
Patna (पटना): जन संस्कृति मंच ने सुविख्यात शायर राहत इंदौरी की कोरोना संक्रमण से हुई मौत को देश की साझी संस्कृति और हिंदुस्तानी साहित्य के लिए बहुत बड़ी क्षति बताया है। जसम के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि इस वक्त जब इस मुल्क में सदियों पुराने भाईचारे को धार्मिक-सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति लगातार तोड़ रही है, तब उसके खिलाफ राहत साहब अपनी शायरी के जरिए कौमी एकता और आम अवाम के पक्ष में ताकतवर तरीके से आवाज बुलंद कर रहे थे।
सांप्रदायिक फासीवादी जहर और व्यवस्थाजन्य त्रासदियों के खिलाफ संघर्ष करने वाले या बदलाव चाहने वाले तमाम लोगों के वे महबूब शायर थे। नागरिकता संबंधी कानूनों के खिलाफ जो आंदोलन पूरे देश में उभरा था, उसे भी राहत साहब की शायरी से मदद मिल रही थी।
उन्होंने गजल में सेकुलर-जनतांत्रिक तर्कों को जगह दी और जिसके कारण उनकी रचनाएं आम अवाम के लोकतांत्रिक-संवैधानिक हक-अधिकार के संघर्ष से जुड़ गईं।
1 जनवरी 1950 को जन्में राहत इंदौरी की लोकप्रियता हाल के वर्षो में और तेजी से बढ़ी थी। उनका शेर ‘सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में/ किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है’
एकाधिकारवादी, सांप्रदायिक-वर्णवादी राष्ट्र की परिकल्पना के खिलाफ आम अवाम के राष्ट्र की अवधारणा के तौर पर मकबूल है। इसी गजल के दो और शेर गौर करने के काबिल हैं-
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन/ हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है…
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे/ किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है।
हिंदुस्तानी अकलियतों की पीड़ा और संकल्प भी उनकी शायरी की खासियत है। उन्होंने लिखा है- अब के जो फैसला होगा वह यहीं पे होगा/ हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली। ‘धूप-धूप’ और ‘नाराज’ राहत साहब के दो प्रकाशित गजल संग्रह हैं।
मौत से उन्हें कोई खौफ नहीं था। वे एक जिंदादिल शायर थे। उनकी जिंदादिली और उनका संघर्षशील मिजाज आने वाले वक्त में भी हमें रोशनी दिखाता रहेगा। बकौल राहत साहब-
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो / दोस्ताना जिंदगी से, मौत से यारी रखो
न्यूज डेस्क
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