
कोई नहीं रूमाल यहां पर, राह तक रहीं आँखें गीली! कोई कैसे जिए भला अब, बहने लगी हवा ज़हरीली!!
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-सत्येन्द्र गोविन्द
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अब तक हमनें केवल ग़ज़लों (एक बार कुछ फुटकर रचनाओं को छोड़कर) को ही स्थान दिया था, लेकिन इस बार साहित्य के इस रविवारीय अंक में हम लेकर आए हैं आदरणीय "डॉ० दिनेश त्रिपाठी शम्स" जी के पाँच गीत।
आइए पढ़ते हैं जीवन की सच्चाई को रेखांकित करते "डॉ० दिनेश त्रिपाठी शम्स" जी के गीत-
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गीत-1 'बहने लगी हवा ज़हरीली'
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।
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गुणा-भाग हैं सबके अपने ,
सबके अपने-अपने हित हैं ।
क़दम-क़दम पर आग लगा कर ,
हाथ सेंकने वाले नित हैं ।
कोई नहीं रूमाल यहां पर ,
राह तक रहीं आँखें गीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
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जो आकाश बने बैठे हैं ,
वो धरती का पीर लिखेंगे ।
आज़ादी की संज्ञा देकर ,
बस केवल ज़ंज़ीर लिखेंगे ।
बाँट रहे हैं दवा नींद की ,
रचने को दुनिया सपनीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
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हाथों में हथियार थामकर ,
सबने शान्ति गीत हैं गाए ।
नरभक्षी हो गई सभ्यता ,
बारूदों का ढेर लगाए ।
ऐसे में कब कौन जला दे ,
सिर्फ एक माचिस की तीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
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गीत-2 'फागुन जवान हो गया'
फागुन जवान हो गया ,
आ पहुंचे गदराये दिन ||
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कुछ भी तो सुध-बुध नहीं ,
यूँ लगा बुखार चढ़ गया |
रोम-रोम पुलकित हुआ ,
प्रीति का खुमार चढ़ गया |
मौसम की तासीर है ,
लगते हैं महुआये दिन ||
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सरसों सयानी हुई ,
बहका है वातावरण |
खिल उठे टेसू के फूल ,
दहका है वातावरण |
महक उठी आम्र मंजरी ,
ऐसे हैं बौराए दिन ||
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खुशियों की बौछार में ,
बचा नहीं कोई मलाल |
रंगों का पर्व आ गया ,
उड़ने लगा है गुलाल |
अंग-अंग टूटने लगा ,
बिलकुल हैं अलसाए दिन ||
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गीत-3 'फेसबुक की दुनिया से निकलें'
जटिल हो गए जीवन के मुद्दे ,
सरल करेंगे उनमें से दो-चार ।
फेसबुक की दुनिया से निकलें ,
थोड़ी देर कहीं मिल बैठें यार ।
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जितना चाहें जी भर के हँस लें ,
जितना चाहें जी भर के रो लें ।
अपने-अपने जीवन की गांठें ,
आओ मुखर होकर के हम खोलें ।
आपाधापी में आखिर कब तक ,
सिर्फ बुनेंगे आभासी संसार ।
फेसबुक की दुनिया से निकलें ,
थोड़ी देर कहीं मिल बैठें यार ।
.
हम क्या समझें घर का अपनापन ,
हम तो बनकर सिर्फ मकान रहे ।
दूर-दूर तक परिचय खूब बढ़ा ,
आस-पास से पर अनजान रहे ।
भव्य इमारत हमने गढ़ तो ली ,
लेकिन दरका-दरका है आधार ।
फेसबुक की दुनिया से निकलें ,
थोड़ी देर कहीं मिल बैठें यार ।
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सद्भावों के ताज़े सुन्दर पुष्प ,
कभी-कभी तो भेजें रिश्तों को ।
अपनेपन का दे करके स्पर्श ,
आओ चलें सहेजें रिश्तों को ।
शाम तलक जो हो जाए बासी ,
रिश्तों को मत बनने दें अखबार ।
फेसबुक की दुनिया से निकलें ,
थोड़ी देर कहीं मिल बैठें यार ।
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गीत-4 'मानवता का राग'
हमने युगों - युगों से गाया मानवता का राग॥
.
चाहे जैसी विपदा आई,
हम उससे निर्भय टकराए।
हमने बंजर धरती पर भी,
उम्मीदों के फूल उगाए।
अपनी जिजीविषा से डरकर काल गया है भाग।
हमने युगों-युगों से गाया मानवता का राग॥
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एक साथ मिल करके हमनें,
मुश्किल बाजी को जीता है।
धैर्य और साहस का अपने -
पात्र कभी नहीं रीता है।
आँखों में करुणा सीने में भरते आये आग।
हमनें युगों - युगों से गाया मानवता का राग॥
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हम भारतवासी हैं हमने,
गीत प्रेम के अविरल गाये।
गले लगाने को आतुर हैं -
सबके लिए बांह फैलाये।
नफरत जो फैलाते उनको भी बांटा अनुराग।
हमने युगों-युगों से गाया मानवता का राग॥
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हम पीड़ा में हँसे जोर से,
और खुशी में आँखें नम हैं।
हम जोगी-अवधूत हमारे -
लिए जगत के वैभव कम हैं।
हम मरघट में भस्म उड़ाकर खेला करते फाग।
हमने युगों-युगों से गाया मानवता का राग॥
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गीत-5 'ये कैसा मधुमास ?'
देश में ये कैसा मधुमास ?
किसी ओर भी नहीं दीखता, चेहरे पर उल्लास ।
देश में ये कैसा मधुमास ?
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मज़हब की पिचकारी लेकर ,
खेल रहे शोणित की होली ।
नफरत का माहौल बना है ,
चला रहे अपनों पर गोली ।
हँसी-ठिठोली मौन हो गई, खण्डित है विश्वास ।
देश में ये कैसा मधुमास ?
.
प्यार-मुहब्बत, सद्भावों के-
लिए समय अनुकूल नहीं है ।
कैसा है ज़हरीला मौसम ,
उगता कोई फूल नहीं है ।
धीरे-धीरे संबंधों के , मुरझा गए पलाश ।
देश में ये कैसा मधुमास ?
.
राजनीति ने तोड़ दिया है ,
समरसता का ताना – बाना ।
छाई है गहरी खामोशी ,
भूल गए हम फगुआ गाना ।
पहले जैसी अब गुझिया में , मिलती नहीं मिठास ।
देश में ये कैसा मधुमास ?
.
आखिरकार एक दिन सबको ,
दुनिया से होता है जाना ।
किन्तु अमर ये रहे मनुजता ,
है इतना दायित्य निभाना ।
वरना इक दिन प्रश्न करेगा , हमसे फिर इतिहास ।
देश में ये कैसा मधुमास ?
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डॉ. दिनेश त्रिपाठी शम्स
जवाहर नवोदय विद्यालय
बलरामपुर , उत्तर प्रदेश 271201
मोबाइल - 9559304131
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