
किस लुटेरे की है यह दुनिया, आखिर यहां दुख मिटता क्यों नहीं है
प्रत्येक रविवार की तरह इस बार भी हम लेकर आए हैं कुछ नई रचनाएँ। आपलोगों की प्रतिक्रियाएँ हमारी मनोबल बढ़ाती हैं तथा हमारी आगे की राह प्रशस्त करती हैं। आशा है आपलोग इस पोर्टल पर साहित्य का भरपूर आनंद ले रहे होंगे।
साहित्य के रविवारीय अंक में इस बार हम लेकर आए हैं आदरणीय "जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव" जी की रचनाएँ। श्रीवास्तव जी एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी रचनाओं में हमें तरह-तरह का परिदृश्य देखने को मिलता है। आप सब भी पढ़ें। आशा है रचनाओं से आप ख़ुद भी जुड़ाव महसूस ज़रूर कर पाएँगे।
आइए पढ़ते हैं "जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव" जी की पाँच रचनाएँ...
1. "आख़िर सूरज उगता क्यों नहीं"
सुबह, दोपहर और शाम हो गई आख़िर सूरज उगता क्यों नहीं है
कब से लगी है पेट में आग, आख़िर ये दाह बुझता क्यों नहीं है
क्यों इतना घनेरा कुहरा है यहाँ आख़िर कुछ सूझता क्यों नहीं है
किस लुटेरे की है यह दुनिया आख़िर यहाँ दुख मिटता क्यों नहीं है
उन्मादी अहि फ़न फैलाये आख़िर उनके फ़न कूटता क्यों नहीं है
यहाँ कैसी उलझने आन पड़ी है आख़िर यह सुलझता क्यों नहीं है
कैसा घर बनाया है इसमें खिड़की दरवाज़ा क्यों नहीं है
कब से बच्चें रो रहे कोई मूरत मन बहलाता क्यों नहीं है
कैसी नई सर्द बर्फ की नदी है, लहर आख़िर उठता क्यों नहीं है
हर क़ल्ब में आग सुना है तो फिर लावा फूटता क्यों नहीं है
बहुत से सुन्दर सुन्दर सूरत है, कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है
हे त्रेता के राम बताओ! रामराज्य यहाँ आता क्यों नहीं है
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2. "चीखों को मेरे कैसे लगाओगे हथकड़ी"
साबुत है दिल मेरा अभी तार-तार तो नहीं
बंद होंठ हैं दोनों के बंद गुफ़्तार तो नहीं
चीखों को मेरी कैसे लगाओगे हथकड़ी
तन कैद है कारागार में आवाज तो नहीं
सहने की आदतें मेरे छालों की पड़ गई
रास्ता है काँटेदार पर दुश्वार तो नहीं
पर्दा गिरा दिया है बदन पर हसीनों के
क़ल्ब में बसा लिया है कठिन दीदार तो नहीं
तेरे हमारे बीच में अब नहीं है शर्म-ओ-हया
मिलन कैसे रुकेगा कोई दीवार तो नहीं
चाहत को मेरी रोग समझते हैं सब यहाँ
कह दो जमाने से कि हम बीमार तो नहीं
अपना बनाना किसी को क्या सच में गुनाह है
मैं आदमी अच्छा हूँ कोई खराब तो नहीं
आबाद मेरे दिल में है तस्वीर जो तेरी
दुनिया कहे तो कहे मैं बरबाद तो नहीं
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3. "कितनी फूँके मार रहे"
धुआँ उठ रहा है तो आग भड़केगी
मत दबाओ किसी को आह भड़केगी
कितनी फूँके मार रहे लुकाठी में
आप मुँह को बचा रख आँच भड़केगी
झोपड़ी का घर है हवा भी तेज है
धूं धूं कर जलेगी लौ तो भड़केगी
मत कोंचो सोए हुए घूर को आप
गाँती जलेगी चिंगारी भड़केगी
यज्ञ करो हवन करो समिधा भी डालो
संभल के घृत डालो समिधा भड़केगी
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4. "हँसना रोना लगा रहेगा"
पाना खोना लगा रहेगा हँसना रोना लगा रहेगा
औरों की ख़ातिर जो जीता उसका जीवन सदा रहेगा
सूरज की पूजा है होती, अँधियारा कब पूजा जाता
जो चमकेगा वही दिखेगा बाकी तम में छिपा रहेगा
ख़ुशियाँ केवल उसको मिलती लोगों को जो ख़ूब हँसाए
दीन पर दया नहीं करता जो उसको ख़ुद से गिला रहेगा
जो गुल बरखा सह लेता है , जो आतप में हँस लेता है
गुलशन की रौनक़ है जिससे फूल याद वो सदा रहेगा
जो धारा उठती है गिरती , पत्थर से टकराया करती
कलकल करती जिसकी धारा वो पानी तो सदा रहेगा
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5. "तेरा मन कोमल कोंपल-सा"
धरती तू बसुंधरा है तेरा गर्भ मोती भरा है
दीप्ति बदन की अद्भुत, तेरा तन हरा भरा है
तेरा मन कोमल कोंपल-सा, तेरा मन एक इंद्रधनुष सा
दिखा रहा है नाच अपना, पावस ऋतु के मयूर जैसा
धरती से आकाश तक, लगता है आनंद भरा है
धरती तू बसुंधरा है तेरा गर्भ मोती भरा है
धरती तू पानी देती है, फ़ल फूल हरियाली देती है
देती मलयानिल की ख़ुशबू मन को खुशियाली देती है
भर आती आँखें मेरी, तेरे सीने पर जब कुदाली चलती है
देख तुम्हारी सहनशीलता गगन का भी नयन भरा है
धरती तू बसुंधरा है तेरा गर्भ मोती भरा है
धरती पर उत्पात बढ़ा है कालिया का फ़न फैला है
हिमखंड सब पिघल रहे है धरती पर खतरा बढ़ा है
ऐसे कैसे चलेगा जीवन सबके मन में भय भरा है
धरती तू बसुंधरा है तेरा गर्भ मोती भरा है
नाम - जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव
मो० नं०-9430820005
जन्म तिथि - 16.01.1957
शैक्षणिक योग्यता - स्नातक
जन्म स्थान - मोतिहारी
Behtareen rachnayein
ReplyDeleteBehtareen rachnayein
ReplyDeleteBehtareen rachnayein
ReplyDeleteकविता का एक ऐसा संकलन है जो पठान के साथ चित्रित रूप में आंखों के सामने से गुजरता है और हम उससे अभिभूत हो जाते हैं पात्रों और दृश्यों की इस श्रृंखला को शब्दों में पिरोने तू साध्य है
ReplyDeleteकविता का एक ऐसा संकलन है जो पठान के साथ चित्रित रूप में आंखों के सामने से गुजरता है और हम उससे अभिभूत हो जाते हैं पात्रों और दृश्यों की इस श्रृंखला को शब्दों में पिरोना दूसाध्य है
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