
रिश्तों की नगरी से ग़ायब, दिल वाला मकरंद, लगता है शर्तों के दम पर, चलते हैं संबंध
'साहित्य समाज का दर्पण होता है' यह वाक्य हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। यह सही भी है सच में एक गीतकार,एक ग़ज़लकार या किसी भी विधा का कवि वही लिखता है जो उसे समाज में दिखाई देता है।यदि अपने समय के समाज को जानना है तो फिर हमें समसामयिक मुद्दों पर रची जा रही साहित्यिक रचनाओं को ज़रूर पढ़ना चाहिए।
हमें इस बात की बेहद ख़ुशी है कि आप सभी का प्यार निरंतर मिल रहा है। आप सभी अपना सहयोग ऐसे ही बनाए रखें और पढ़ते रहें 'रविवारीय साहित्यिकी'। इस बार की रचनाएँ कैसी लगी कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएँ।
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-सत्येन्द्र गोविन्द
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साहित्य के इस रविवारीय अंक में हम उपस्थित हैं एक युवा गीतकार आदरणीय 'शिवम खेरवार जी' के गीतों के साथ।
परिचय:-
नाम: शिवम 'खेरवार'
लेखन विधा: गीत, छंद एवं आलेख
जन्मतिथि: 3 अगस्त 1997 (एटा, उ.प्र.)
निवासस्थान: आगरा, उ.प्र.
सम्प्रति:
●मैकेनिकल इंजीनियर,
●क्षेत्रीय प्रतिनिधि, सम्पादन सहयोगी, 'शेषामृत,' (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका)
●क्षेत्रीय प्रतिनिधि, साहित्यागंधा मासिक
●मेंटर, कविताकोश-अभिव्यंजना
प्रकाशन: 7 साझा काव्य संग्रह, देश की विभिन्न पत्रिकाओं में निरंतर गीतों, आलेखों इत्यादि का प्रकाशन।
तो आइए पढ़ते हैं आदरणीय "शिवम खेरवार जी" के पाँच गीत-
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गीत-1
हम मुसाफ़िर; राह से भटके हुए हैं,
इस तरह गंतव्य तक ना जा सकेंगे।
चौसरों में लिप्त करके बुद्धि अपनी,
कुछ शकुनियों ने बहुत ही छल किए हैं।
चाल में घिरते गए उतने कि जितने,
प्रश्न जब हमने यहाँ पर हल किए हैं,
प्रश्न में उत्तर छिपे यह ज्ञात हमको,
दृष्टिबाधित हम; इन्हें ना पा सकेंगे।
इस तरह गंतव्य...
हम युधिष्ठिर के सदृश; जब 'द्रौपदी' को,
जीतने की होड़ करके हार बैठे।
धर्म का वध हाय! तब हमने किया जब,
चित्त का ब्रह्मा स्वयं ही मार बैठे।
मौन मन की ग्लानि है; जिसको कभी भी,
कंठ क्या, ये नैन भी ना गा सकेंगे।
कुछ यहाँ 'धृतराष्ट्र' आँखें खोलकर भी,
ढोंगियों से; मूँद कर बैठे हुए हैं,
भीष्म, द्रोणाचार्य भी निर्लज्ज होकर,
निज अधर पर चुप्प धर बैठे हुए हैं।
हम कुटिल रणव्यूह में फँसने लगे हैं,
चीरकर मझधार को ना आ सकेंगे।।
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गीत-2
भगीरथी के हम रखवाले,
बनकर घूम रहे हैं दर-दर।
बैनर की प्रतियाँ शहरों में,
जगह-जगह चिपकाते हैं।
नए-नए मुद्दों को लेकर,
नित आवाज़ उठाते हैं।
दुर्गन्धों में दबे हुए हैं,
फिर भी गंगा मइया के स्वर।
जय गंगा की बोल-बोल कर,
क्या गंगा बच जाएगी?
अरे! हमारे कर्म प्रदूषित,
त्राहि-त्राहि मच जाएगी।
मन भर कचरा भेज रहे हैं,
निज घर से गंगा माँ के घर।
कितने ही अभियान चला लें,
विफल रहेंगे यदि सोए।
कॉलर पकड़ो; ख़ुद से पूछो,
गंगा आख़िर क्यों रोए?
संतानों! माँ के प्रति मिलकर,
सबको होना होगा तत्पर।
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गीत-3
जकड़ रहे हैं हर मनुष्य को,
मोबाइल के तार।
बिना बात के हँसते-रोते,
हम हरक़त से पागल होते,
चलता-फिरता पागलखाना,
बना दिया संसार।
समय अभागा रोता रहता,
पीड़ा के स्वर में है कहता,
'टाइम' का मोबाइल युग में,
मूल्य हुआ बेकार।
घंटों इस पर 'चैटें' करते,
आभासी दुनिया में रहते,
रिश्ते-नाते गौण हुए हैं,
भूल गए व्यवहार।
पबजी-पबजी-पबजी-पबजी,
भूल गए हैं रोटी-सब्जी,
बच्चों को अब रास न आता,
माँ का लाड़-दुलार।
खुशियाँ दूरी लगीं बनाने,
बीमारी आती है खाने,
व्याकुलता, चिंता में भटका,
जीवन का आधार।
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गीत-4
रिश्तों की नगरी से ग़ायब,
दिल वाला मकरंद।
लगता है शर्तों के दम पर,
चलते हैं संबंध।
नई बहू सा घूँघट कर लो,
कहते हैं।
शर्तों में घुट-घुटकर ही हम,
रहते हैं।
दुनिया रखती एवेरेस्ट से,
रिश्तों में अनुबंध।
अपना-अपना हँसना-रोना,
भाता है।
मेरे कारण प्राण खिन्न हो,
जाता है।
दुनिया के 'सैटिस्फैक्शन' का,
कैसे करूँ प्रबंध?
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गीत-5
घर की शाखों पर मुरझाते,
मिले गुलाबी फूल।
मिली चटकती हुई ज़मीनें,
जल की आशा में।
सदमे से 'कौमा' तक जातीं,
जड़ें निराशा में।
हवा गाड़ती ज़हरीले कुछ,
घर के मन में शूल।
तने-टहनियों की अनबन में,
पत्ते रोते हैं।
नन्हे नाज़ुक फूल यहीं पर,
संबल खोते हैं।
कोढ़ ग्रसित है कुनबा जबसे,
बढ़ी आपसी 'तूल'
हरी-भरी है सारी बस्ती,
घर ही बंज़र है।
इसी शज़र पर दीमक है,
बाक़ी खुशमंज़र है।
सबके घर का राग यही है,
समझ न पाएँ 'फूल*।'
*बेवक़ूफ़
-शिवम 'खेरवार'
-75996 09190
जन्मतिथि: 3 अगस्त 1997 (एटा, उ.प्र.)
निवासस्थान: आगरा, उ.प्र.
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